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Sunday, September 30, 2018

ईश्वर कौन है?

★ईश्वर और उसका मार्गदर्शन
◆आज लोग ईश्वर का नाम अवश्य लेते हैं,
उसकी पूजा भी करते हैं, परन्तु बड़े खेद की बात है
कि उसे पहचानते बहुत कम लोग हैं।
ईश्वर कौन है?
ईश्वर समस्त सृष्टि का अकेला स्रष्टा, पालनहार और
शासक है। उसी ने पृथ्वी, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य,
सितारे और पृथ्वी पर रहने वाले सारे इंसानों एवं
प्रत्येक जीव-जन्तुओं को पैदा किया। न उसे खाने-
पीने और सोने की आवश्यकता पड़ती है, न उसके पास
वंश है और न ही उसका कोई साझी।
क़ुरआन ईश्वर का इस प्रकार परिचय कराता है—
‘‘कहो वह अल्लाह है, यकता है, अल्लाह सब से
निस्पृह है और सब उसके मुहताज हैं, न उसकी कोई
संतान है और न वह किसी की संतान है और कोई
उसका समकक्ष नहीं है।’’ (क़ुरआन, 112:1-4)
इस सूरः में ईश्वर के पांच मूल गुण बताए गए हैं—
(1) ईश्वर केवल एक है, (2)
उसको किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती, (3)
उसकी कोई संतान नहीं, (4) उसके माता-पिता नहीं एवं
(5) उसका कोई साझीदार नहीं।
अथर्ववेद (13-4-20) में है—
‘‘तमिदं निगतं सहः स एष एक एकवृदेक एव’’
किन्तु वह सदा एक अद्वितीय ही है। उससे भिन्न
दूसरा कोई भी नहीं। ...वह अपने काम में
किसी की सहायता नहीं लेता, क्योंकि वह
सर्वशक्तिमान है।
(स्वामी दयानन्द सरस्वती, दयानन्द ग्रंथमाला,
पृ॰-338)
और हिन्दू वेदांत का ब्रह्मसूत्र यह है—
एकम् ब्रह्म द्वितीय नास्तेः नहे ना नास्ते किंचन।
ईश्वर एक ही है दूसरा नहीं है, नहीं है, तनिक
भी नहीं है।
क्या ईश्वर अवतार लेता है?
बड़े दुख की बात है कि जिस ईश्वर की कल्पना हमारे
हृदय में स्थित है, अवतार की आस्था ने
उसकी महिमा को खंडित कर दिया। आप स्वयं सोचें
कि जब ईश्वर का कोई साझीदार नहीं और न उसे
किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ती है, तो उसे मानव रूप धारण
करने की क्या आवश्यकता पड़ी? श्रीमद भागवत
गीता (7/24) में कहा गया है—
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।
बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न
जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्द
परमात्मा को मनुष्य की भांति जन्मकर व्यक्ति भाव
को प्राप्त हुआ मानते हैं। (गीता-तत्व विवेचनी टीका,
पृष्ठ-360)
और यजुर्वेद 32/3 में इस प्रकार है—
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महदयश।
‘जिस प्रभु का बड़ा प्रसिद्ध यश है उसकी कोई
प्रतिमा नहीं’। धार्मिक पक्षपात से अलग होकर आप
स्वयं सोचें कि क्या ऐसे महान ईश्वर के संबंध में यह
कल्पना की जा सकती है कि वह जब इन्सानों के
मार्गदर्शन का संकल्प करे, तो स्वयं ही अपने बनाए
हुए किसी इन्सान का वीर्य बन जाए, अपने ही बनाए
हुए किसी महिला के गर्भाशय की अंधेरी कोठरी में
प्रवेश होकर 9 महीना तक वहां क़ैद रहे और
उत्पत्ति के विभिन्न चरणों से गुज़रता रहे, ख़ून और
गोश्त में मिलकर पलता-बढ़ता रहे फिर जन्म ले और
बाल्यावस्था से किशोरवस्था को पहुंचे। सच बताइए
क्या इससे उसके ईश्वरत्व में बट्टा न लगेगा?
ईश्वर मनुष्य नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर एवं
मनुष्य के गुण भिन्न-भिन्न हैं। यद्यपि ईश्वर को हम
सर्वशक्तिमान मानकर चलते हैं, परन्तु इसका अर्थ
यह तो नहीं कि ईश्वर ईश्वरत्व से बदलकर
मनुष्यत्व में परिणीत हो जाए।
प्रश्न यह उठता है कि जब ईश्वर अवतार नहीं लेता,
तो उसने मानव का मार्गदर्शन कैसे किया?
इसका उत्तर जानने के लिए यदि आप अवतार
का सही अर्थ समझ लें, तो आपको स्वयं पता चल
जाएगा कि ईश्वर ने मानव का मार्गदर्शन कैसे किया।
अवतार का अर्थ—
श्री राम शर्मा जी कल्किपुराण के पृष्ठ 278 पर
अवतार की परिभाषा करते हैं—
‘‘समाज की गिरी हुई दशा में उन्नति की ओर ले जाने
वाला महामानव नेता।’’
अर्थात् मानव में से महान नेता जिनको ईश्वर मानव
मार्गदर्शन के लिए चुनता है।
डॉ॰ एम॰ ए॰ श्रीवास्तव लिखते हैं—
‘‘अवतार का अर्थ यह कदापि नहीं है कि ईश्वर स्वयं
धरती पर सशरीर आता है, बल्कि सच्चाई यह है
कि वह अपने पैग़म्बर और अवतार भेजता है।’’
(हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) और भारतीय धर्मग्रंथ,
पृष्ठ 5)
ज्ञात यह हुआ कि ईश्वर की ओर से ईश-ज्ञान लाने
वाला मनुष्य ही होता है, जिसे संस्कृत में अवतार,
अंग्रेज़ी में प्राफेट और अरबी में रसूल (ईश-दूत) कहते
हैं।
ईश्वर ने मानव-मार्गदर्शन के लिए हर देश और हर
युग में अनुमानतः 1,24,000 ईशदूतों को भेजा।
क़ुरआन उन्हें रसूल या नबी कहता है। वह मनुष्य
ही होते थे, उनमें ईश्वरीय गुण कदापि नहीं होता था,
उनके पास ईश्वर का संदेश आकाशीय दूतों के माध्यम
से आता था तथा उनको प्रमाण के रूप में
चमत्कारियां भी दी जाती थीं।
लेकिन जब इन्सानों ने उनमें असाधारण गुण देखकर उन
पर श्रद्धा भरी नज़र डाली, तो किसी समूह ने उन्हें
भगवान बना लिया, किसी ने अवतार का सिद्धांत
बना लिया, जबकि किसी ने उन्हें ईश्वर का पुत्र समझ
लिया, हालांकि उन्होंने उसी के खंडन और विरोध में
अपना पूरा जीवन बिताया था।
इस प्रकार हर युग में संदेष्टता आते रहे और लोग
अपने स्वार्थ के लिए उनकी शिक्षाओं में परिवर्तन
करते रहे, यहां तक कि जब सातवीं शताब्दी ईसवी में
सामाजिक, भौतिक और सांस्कृतिक उन्नति ने
सारी दुनिया को एक इकाई बना दिया, तो ईश्वर ने हर
देश में अलग-अलग संदेष्टा भेजने के क्रम को बन्द
करते हुए अरब में महामान्य हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰)
को भेजा और उन पर ईश्वरीय संविधान के रूप में
क़ुरआन का अवतरण किया, यह ग्रंथ चैदह
सौ शताब्दी पूर्व अवतरित हुआ था, लेकिन आज तक
पूर्ण रूप में सुरक्षित है। एक ईसाई विद्वान सर
विलियम म्यूर कहते हैं—
‘‘संसार में क़ुरआन के अतिरिक्त कोई ऐसा ग्रंथ
नहीं पाया जाता, जिसका अक्षर एवं शैली बारह
शताब्दी गुज़रने के बावजूद पूर्ण रूप में सुरक्षित हो।’’
(लाइफ़ ऑफ़ मुहम्मद)
इस्लाम कब से?
आज अधिकांश लोगों में यह भ्रम प्रचलित है
कि इस्लाम के संस्थापक हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) हैं।
यद्यपि सत्य यह है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) कोई
नया धर्म लेकर नहीं, बल्कि उसी धर्म के अन्तिम
संदेष्टा थे, जो धर्म ईश्वर ने समस्त मानवजाति के
लिए चुना था। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) इस्लाम के
संस्थापक नहीं, बल्कि उसके अंतिम संदेष्टा हैं।
यही वह धर्म है जिसकी शिक्षा मनुष्य को दी गई
थी। सबसे पहले मानव आदम हैं जिनकी रचना ईश्वर ने
बिना माता-पिता के की थी और उनके बाद
उनकी पत्नी हव्वा को उत्पन्न किया था।
इन्हीं दोनों पति-पत्नी से मनुष्य के उत्पत्ति का आरंभ
हुआ, जिनको कुछ लोग मनु और सतरोपा कहते हैं,
तो कुछ लोग ऐडम और ईव। जिनका विस्तारपूर्वक
उल्लेख पवित्र क़ुरआन (2/30-38) तथा भविष्य
पुराण प्रतिसर्ग पर्व (खंड 1 अध्याय 4) और
बाइबल (उत्पत्ति 2/6-25) और दूसरे अनेक
ग्रंथों में किया गया है। ईश्वर ने हर युग में प्रत्येक
समुदाय को उनकी अपनी ही भाषा में शिक्षा प्रदान
किया, (सूरः इब्राहीम, 14:4)। उसी शिक्षा के
अनुसार जीवन-यापन का नाम इस्लाम था, जिसका नाम
प्रत्येक संदेष्टा अपनी-अपनी भाषा में रखते थे जैसे
संस्कृत में नाम था ‘सर्व समर्पण धर्म’
जिसका अरबी भाषा में अर्थ होता है ‘‘इस्लाम
धर्म’’।
ज्ञात यह हुआ कि मानव का धर्म आरंभ से एक
ही रहा है, परन्तु लोगों ने अपने-अपने गुरुओं के नाम से
अलग-अलग धर्म बना लिया और विभिन्न धर्मों में
विभाजित हो गए।
आज हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता यही है कि हम
अपने वास्तविक ईश्वर की ओर पलटें, जिसका संबंध
किसी विशेष देश, जाति या वंश से नहीं, बल्कि वह
सम्पूर्ण संसार का स्रष्टा, अन्नदाता और
पालनकर्ता है। ईश्वर ही ने हम सबको पैदा किया,
वही हमारा पालन-पोषण कर रहा है, तो स्वाभाविक
तौर पर हमें केवल उसी की पूजा करनी चाहिए,
इसी तथ्य का समर्थन प्रत्येक धार्मिक ग्रंथों ने
भी किया है। इस्लाम भी यही आदेश देता है कि मात्र
एक ईश्वर की पूजा की जाए, इस्लाम की दृष्टि में
स्वयं मुहम्मद (सल्ल॰)
की पूजा करना अथवा आध्यात्मिक चिंतन के बहाने
किसी चित्र का सहारा लेना महापाप है। सुनो अपने
ईश्वर की—
‘‘लोगो! एक मिसाल दी जाती है, ध्यान से सुनो! जिन
पूज्यों को तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारते हो वे सब
मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर
सकते। बल्कि यदि मक्खी उनसे कोई चीज़ छीन ले जाए
तो वे उसे छुड़ा भी नहीं सकते। मदद चाहने वाले
भी कमज़ोर और जिनसे मदद चाही जाती है वह
भी कमज़ोर, इन लोगों ने अल्लाह की क़द्र
ही नहीं पहचानी जैसा कि उसके पहचानने का हक़
है।’’ (क़ुरआन, 22:73-

Paramedical Courses

*Paramedical Courses*

Career in medical field isn’t limited to being a doctor, as the entire sector is filled with numerous possibilities in the shape of non clinical & paramedics.A successful doctor or a hospital is nothing without its trained paramedical staff. The staff can be anybody ranging from a nurse to Phsio therapist or occupational therapist. They are important part of therapy both before and after the treatment.
A good thing about paramedical courses is that they are job oriented courses. Like good doctors, paramedics are also in huge demand.
Paramedic healthcare workers are in great demand all over the world.They are directly involved in the day to day functioning of a hospital or nursing home and act as assistants to Doctors.No medical facility can exist without the constant efforts of paramedical staff.they are in all fields of the medical fraternity.

In ParaMedical there are 3 type of course 1)BPMT Bachelor of Paramedical technology a 4 years degree course Three years academic 1 year internship 2) DPMT Diploma in para Medical technology a 2 years diploma courses & 1 Years certificate courses

*BPMT courses*

1-Laboratory Technician
2-Radiographic Technician
3-Radiotherapy Technician
4-Cardiology Technician
5-Neurology Technician
6-optometry Technician
7-plaster Technician
8-Blood Transfusion Technician
9-Anaesthesia Technician)
10-Operation Theatre Technician)
11-Cyto Technician)
12-Histopathology 13-Technician)
14-Clinical Psychologist)
15-Endoscopy Technician
And many more

*Diploma courses*

1)DMLT Diploma in Medical Laboratory Technology
2)DRT Diploma in X-ray technology
3)DOTT Diploma in operation theatre technology
4)DDT Diploma in Dialysis Technology
5)DCVT Diploma in Cardio Vascular Technology
6-DOA Diploma in Ophthalmic Assistance
7-DMC Dental Mechanic Certificate
8-Diploma in ECG Technology
9-DCH Diploma In Community Health
10-DIPLOMA IN NUTRITION & DIET PLANNING
And Many More

*Certificate courses*

1-Certificate  In Laboratory Technique
2-Certificate  In Sanitary Inspector Training
3-Certificate  In Radiography
4-Certificate  In X-Ray Technician
5-Certificate in Dialysis Technology
6-Certificate  In Optician & Refractionist
7-Certificate  In Ortho-Optists
8-Dental Hygienist
Certificate
9-Certificate in Dental Mechanic
And many More

*Muzaffar Khan*
*Medical Education Counsellor*

انسان زمین کا ایلین ہے*

*انسان زمینی مخلوق نہیں ھے:*

امریکی ایکولوجسٹ ڈاکٹر ایلس سِلور کی تہلکہ خیز ریسرچ:
ارتقاء (Evolution) کے نظریات کا جنازہ اٹھ گیا:
ارتقائی سائنسدان لا جواب:

*انسان زمین کا ایلین ہے* ۔

ڈاکٹر ایلیس سِلور(Ellis Silver)نے اپنی کتاب (Humans are not from Earth)  میں تہلکہ خیز دعوی کیا ہے کہ انسان اس سیارے زمین کا اصل رہائشی  نہیں ہے بلکہ اسے کسی دوسرے سیارے پر تخلیق کیا گیا اور کسی وجہ سے اس کے اصل سیارے سے اس کے موجودہ رہائشی سیارے زمین پر پھینک دیا گیا۔

ڈاکٹر ایلیس جو کہ ایک سائنسدان محقق مصنف اور امریکہ کا نامور ایکالوجسٹ(Ecologist)ھے اس کی کتاب میں اس کے الفاظ پر غور کیجئیے۔ زھن میں رھے کہ یہ الفاظ ایک سائنسدان کے ہیں جو کسی مذھب پر یقین نہیں رکھتا۔

اس کا کہنا ھے کہ انسان جس ماحول میں پہلی بار تخلیق کیا گیا اور جہاں یہ رھتا رھا ھے وہ سیارہ  ،  وہ جگہ اس قدر آرام دہ پرسکون اور مناسب ماحول والی تھی جسے  وی وی آئی پی کہا جا سکتا ھے وہاں پر انسان بہت ھی نرم و نازک ماحول میں رھتا تھا اس کی نازک مزاجی اور آرام پرست طبیعت سے معلوم ھوتا ھے کہ اسے  اپنی روٹی روزی کے لئے کچھ بھی تردد نہین کرنا پڑتا تھا ، یہ کوئی بہت ہی لاڈلی مخلوق تھی جسے اتنی لگژری لائف میسر  تھی ۔  ۔ وہ ماحول ایسا تھا جہاں سردی اور گرمی کی بجائے بہار جیسا موسم رھتا تھا اور وہاں پر سورج جیسے خطرناک ستارے کی تیز دھوپ اور الٹراوائلیٹ شعاعیں بالکل نہیں تھیں جو اس کی برداشت سے باھر اور تکلیف دہ ھوتی ہیں۔

 تب اس مخلوق انسان  سے کوئی غلطی ہوئی ۔۔

اس کو کسی غلطی کی وجہ سے اس آرام دہ اور عیاشی کے ماحول سے نکال کر پھینک دیا گیا تھا ۔جس نے انسان کو اس سیارے سے نکالا لگتا ہے وہ کوئی انتہائی طاقتور ہستی تھی جس کے کنٹرول میں سیاروں ستاروں کا نظام  بھی تھا  ۔۔۔ وہ جسے چاہتا ، جس سیارے پر چاہتا ، سزا یا جزا کے طور پر کسی کو بھجوا سکتا تھا۔  وہ مخلوقات کو پیدا کرنے پر بھی قادر تھا۔

 ڈاکٹر سلور  کا کہنا ہے کہ ممکن ہے  زمین کسی ایسی جگہ کی مانند تھی جسے جیل قرار دیا جاسکتا ھے ۔ یہاں پر صرف مجرموں کو سزا کے طور پر بھیجا جاتا ہو۔ کیونکہ زمین کی شکل۔۔ کالا پانی جیل کی طرح ہے ۔۔۔ خشکی کے ایک ایسے ٹکڑے کی شکل جس کے چاروں طرف سمندر ہی سمندر ھے ، وہاں انسان کو بھیج دیا گیا۔

 ڈاکٹر سلور ایک سائنٹسٹ ہے جو صرف مشاہدات کے نتائج حاصل کرنے بعد رائے قائم کرتا ہے ۔ اس کی کتاب میں سائنسی دلائل کا ایک انبار ہے جن سے انکار ممکن نہیں۔
اس کے دلائل کی بڑی بنیاد جن پوائنٹس پر ھے ان میں سے چند ایک ثابت شدہ یہ ہیں۔

*نمبر ایک* ۔ زمین کی کش ثقل اور جہاں سے انسان آیا ہے اس جگہ کی کشش ثقل میں بہت زیادہ فرق ہے ۔ جس سیارے سے انسان آیا ہے وہاں کی کشش ثقل زمین سے بہت کم تھی ، جس کی وجہ سے انسان کے لئے چلنا پھرنا بوجھ اٹھا وغیرہ بہت آسان تھا۔ انسانوں کے اندر کمر درد کی شکایت  زیادہ گریوٹی کی وجہ سے ہے ۔ 

*نمبر دو* ؛انسان میں جتنے دائمی امراض پائے جاتے ہیں وہ باقی کسی ایک بھی مخلوق میں نہیں جو زمین پر بس رہی ہے ۔ ڈاکٹر ایلیس لکھتا ہے کہ آپ اس روئے زمین پر ایک بھی ایسا انسان دکھا دیجئیے جسے کوئی ایک بھی بیماری نہ ہو تو میں اپنے دعوے سے دستبردار ہوسکتا ہوں جبکہ میں آپ کو ھر جانور کے بارے میں بتا سکتا ہوں کہ وہ وقتی اور عارضی بیماریوں کو چھوڑ کر کسی ایک بھی مرض میں ایک بھی جانور گرفتار نہیں ہے ۔

*نمبر تین* ؛ ایک بھی انسان زیادہ دیر تک دھوپ میں بیٹھنا برداشت نہیں کر سکتا بلکہ کچھ ہی دیر بعد اس کو چکر آنے لگتے ہیں اور سن سٹروک کا شکار ہوسکتا ہے جبکہ جانوروں میں ایسا کوئی ایشو نہیں ھے مہینوں دھوپ میں رھنے کے باوجود  جانور نہ تو کسی جلدی بیماری کا شکار ہوتے ہیں اور نہ ہی کسی اور طرح کے مر ض میں مبتلا ہوتے ہیں جس کا تعلق سورج کی تیز شعاعوں یا دھوپ سے ہو۔

*نمبر چار* ؛ ہر انسان یہی محسوس کرتا ہے اور ہر وقت اسے احساس رہتا ہے کہ اس کا گھر اس سیارے پر نہیں۔ کبھی کبھی اس پر بلاوجہ ایسی اداسی طاری ہوجاتی ہے جیسی کسی پردیس میں رہنے والے پر ہوتی ہے چاہے وہ بیشک اپنے گھر میں اپنے قریبی خونی  رشتے داروں کے پاس ہی کیوں نا بیٹھا ہوں۔

*نمبر پانچ* زمین پر رہنے والی تمام مخلوقات کا ٹمپریچر آٹومیٹک طریقے سے ہر سیکنڈ بعد ریگولیٹ ہوتا رہتا ہے یعنی اگر سخت اور تیز دھوپ ھے تو ان کے جسم کا درجہ حرارت خود کار طریقے سے ریگولیٹ ہو جائے گا، جبکہ اسی وقت اگر بادل آ جاتے ہیں تو ان کے جسم کا ٹمپریچر سائے کے مطابق ہو جائے گا جبکہ انسان کا ایسا کوئی سسٹم نہیں بلکہ انسان بدلتے موسم اور ماحول کے ساتھ بیمار ھونے لگ جائے گا۔ موسمی بخار کا لفظ صرف انسانوں میں ھے۔

*نمبر چھ* ؛انسان اس سیارے پر پائے جانے والے دوسرے جانداروں سے بہت مختلف ہے ۔ اسکا ڈی این اے اور جینز کی تعداد اس سیارہ زمین پہ جانے والے دوسرے جانداروں سے بہت مختلف اور بہت زیادہ ہے۔

*نمبر سات*: زمین کے اصل رہائشی (جانوروں) کو اپنی غذا حاصل کرنا اور اسے کھانا مشکل نہیں، وہ ہر غذا ڈائریکٹ کھاتے ہیں، جبکہ انسان کو اپنی غذا کے چند لقمے حاصل کرنے کیلیئے ہزاروں جتن کرنا پڑتے ہیں، پہلے چیزوں کو پکا کر نرم کرنا پڑتا ھے پھر اس کے معدہ اور جسم کے مطابق وہ غذا استعمال کے قابل ھوتی ھے، اس سے بھی ظاہر ھوتا ھے کہ انسان زمین کا رہنے والا نہیں ھے ۔ جب یہ اپنے اصل سیارے پر تھا تو وہاں اسے کھانا پکانے کا جھنجٹ نہیں اٹھانا پڑتا تھا بلکہ ہر چیز کو ڈائریکٹ غذا کیلیئے استعمال کرتا تھا۔
مزید یہ اکیلا دو پاؤں پر چلنے والا ھے جو اس کے یہاں پر ایلین ھونے کی نشانی ھے۔

*نمبر آٹھ*: انسان کو زمین پر رہنے کیلیے بہت نرم و گداز بستر کی ضرورت ھوتی ھے جبکہ زمین کے اصل باسیوں یعنی جانوروں کو اس طرح نرم بستر کی ضرورت نہیں ھوتی۔ یہ اس چیز کی علامت ھے کہ انسان کے اصل سیارے پر سونے اور آرام کرنے کی جگہ انتہائی نرم و نازک تھی جو اس کے جسم کی نازکی کے مطابق تھی ۔

*نمبر نو*: انسان زمین کے سب باسیوں سے بالکل الگ ھے لہذا یہ یہاں پر کسی بھی جانور (بندر یا چمپینزی وغیرہ) کی ارتقائی شکل نہیں ھے بلکہ اسے کسی اور سیارے سے زمین پر کوئی اور مخلوق لا کر پھینک گئی ھے ۔

انسان کو جس اصل سیارے پر تخلیق کیا گیا تھا وہاں زمین جیسا گندا ماحول نہیں تھا، اس کی نرم و نازک جلد جو زمین کے سورج کی دھوپ میں جھلس کر سیاہ ہوجاتی ہے اس کے پیدائشی سیارے کے مطابق بالکل مناسب بنائی گئی تھی ۔ یہ اتنا نازک مزاج تھا کہ زمین پر آنے کے بعد بھی اپنی نازک مزاجی کے مطابق ماحول پیدا کرنے کی کوششوں میں رھتا ھے۔جس طرح اسے اپنے سیارے پر آرام دہ اور پرتعیش بستر پر سونے کی عادت تھی وہ زمین پر آنے کے بعد بھی اسی کے لئے اب بھی کوشش کرتا ھے کہ زیادہ سے زیادہ آرام دہ زندگی گزار سکوں۔ جیسے خوبصورت قیمتی اور مضبوط محلات مکانات اسے وہاں اس کے ماں باپ کو میسر تھے وہ اب بھی انہی جیسے بنانے کی کوشش کرتا ہے ۔ جبکہ باقی سب جانور اور مخلوقات اس سے بے نیاز ہیں۔ یہاں زمین کی مخلوقات عقل سے عاری اور تھرڈ کلاس زندگی کی عادی ہیں جن کو نہ اچھا سوچنے کی توفیق ہے نہ اچھا رہنے کی اور نہ ہی امن سکون سے رھنے کی۔ انسان ان مخلوقات کو دیکھ دیکھ کر خونخوار ہوگیا۔ جبکہ اس کی اصلیت محبت فنون لطیفہ اور امن و سکون کی زندگی تھی ۔۔یہ ایک ایسا قیدی ہے جسے سزا کے طور پر تھرڈ کلاس سیارے پر بھیج دیا گیا تاکہ اپنی سزا کا دورانیہ گزار کر واپس آ جائے ۔ڈاکٹر ایلیس کا کہنا ہے کہ انسان کی عقل و شعور اور ترقی سے اندازہ ہوتا ہے کہ اس ایلین کے والدین کو اپنے سیارے سے زمین پر آئے ہوئے کچھ زیادہ وقت نہیں گزرا ، ابھی کچھ ہزار سال ہی گزرے ہیں یہ ابھی اپنی زندگی کو اپنے پرانے سیارے کی طرح لگژری بنانے کے لئے بھرپور کوشش کر رہاہے ، کبھی گاڑیاں ایجاد کرتا ہے  ، کبھی موبائل فون اگر اسے آئے ہوئے چند لاکھ بھی گزرے ہوتے تو یہ جو آج ایجادات نظر آ رہی ہیں یہ ہزاروں سال پہلے وجود میں آ چکی ہوتیں ، کیونکہ میں اور تم اتنے گئے گزرے نہیں کہ لاکھوں سال تک جانوروں کی طرح بیچارگی اور ترس کی زندگی گزارتے رہتے۔   

ڈاکٹر ایلیس سِلور کی کتاب میں اس حوالے سے بہت کچھ ہے اور سب سے بڑی بات یہ ہے کہ اس کے دلائل کو ابھی تک کوئی جھوٹا نہیں ثابت کر سکا۔۔

میں اس کے سائنسی دلائل اور مفرو ضوں پر غور کر رہا تھا۔۔ یہ کہانی ایک سائنسدان بیان کر رہا ھے یہ کوئی کہانی نہیں بلکہ حقیقی داستان ہے جسے انسانوں کی ہر الہامی کتاب میں بالکل اسی طرح بیان کیا گیا ہے۔ میں اس پر اس لئے تفصیل نہیں لکھوں گا کیونکہ آپ سبھی اپنے باپ آدم ؑ اور حوا ؑ کے قصے کو اچھی طرح جانتے ہیں۔۔ سائنس اللہ کی طرف چل پڑی ہے ۔۔ سائنسدان وہ سب کہنے پر مجبور ھوگئے ہیں جو انبیاء کرام اپنی نسلوں کو بتاتے رہے تھے ۔ میں نے نسل انسانی پر لکھنا شروع کیا تھا۔ اب اس تحریر کے بعد میں اس سلسلے کو بہتر انداز میں آگے بڑھا سکوں گا۔۔

ارتقاء کے نظریات کا جنازہ اٹھ چکا ہے ۔۔ اب انسانوں کی سوچ کی سمت درست ہو رہی ھے ۔۔ یہ سیارہ ہمارا نہین ہے ۔یہ میں نہیں کہتا بلکہ پیارے آقا صلی اللہ علیہ و آلہ وسلم نے بیشمار بار بتا دیا تھا۔ اللہ پاک نے اپنی عظیم کتاب قران حکیم میں بھی بار بار لاتعداد مرتبہ یہی بتا دیا کہ اے انسانوں یہ دنیا کی زندگی تمہاری آزمائش  کی جگہ ہے ۔ جہاں سے تم کو تمہارے اعمال کے مطابق سزا و جزا ملے گی ۔

Friday, September 28, 2018

استاد


*استاد ہوں مجھے اس پر ملال تھوڑی ہے*
*ملک کا مستقبل سنوارنا آسان تھوڑی ہے*


*بس استاد ہی فکر مند  ہے سب کے عروج کے لۓ*
*یہاں کسی کو کسی کا خیال تھوڑی ہے*


*مزا توتب ہے کسی خاک کے ذرّے کو منّور کردو*
*صرف اپنی ذات کو روشن کرنا کمال تھوڑی ہے*


*مٹانا پڑتا ہےخود کو قوم کی ترقّی کے لۓ*
*یہ کام کوئی معمولی کام  تھوڑی ہے*

Tuesday, September 25, 2018

محبت کے سجدے

*محبت کے سجدے*

وہ دھوپوں میں تپتی
زمینوں پہ سجدے 

سفر میں وہ گھوڑوں
کی زینوں  پہ سجدے

چٹانوں کی اونچی
جبینوں پہ سجدے

وہ صحرا بیاباں کے
سینوں پہ سجدے

علالت میں سجدے
مصیبت میں سجدے

وہ فاقوں میں حاجت میں
غربت میں سجدے

وہ جنگوں جدل میں
حراست میں سجدے

لگا تیر زخموں کی حالت
میں سجدے

وہ غاروں کی وحشت میں
پُر نور سجدے

وہ خنجر کے ساۓ میں
مسرور سجدے

وہ راتوں میں خلوت سے
مامور سجدے

وہ لمبی رکعتوں سے
مسحور سجدے

وہ سجدے محافظ
مدد گار سجدے

غموں کے مقابل
عطردار سجدے

نجات اور بخشش
کے سالار سجدے

جھکا سر تو بنتے تھے
تلوار سجدے

وہ سجدوں کے شوقین
غازی کہاں ہیں ؟

زمیں پوچھتی ہے
نمازی کہاں ہیں ؟

ہمارے بجھے دل سے
بیزار سجدے

خیالوں  میں الجھے ہوے
چار سجدے

مصلے ہیں ریشم کے
بیمار سجدے

چمکتی دیواروں میں
لاچار  سجدے

ریا کار سجدے ہیں
نادار سجدے ہیں، 

بے نور، بے ذوق
مردار سجدے

سروں کے ستم سے ہیں
سنگسار سجدے

دلوں کی نحوست سے
مسمار سجدے

ہیں مفرور سجدے
ہیں مغرور سجدے 

ہیں کمزور ، بے جان،
معذور سجدے

گناہوں کی چکی میں
ہیں چُور سجدے

گھسیٹے غلاموں سے
مجبور سجدے

کہ سجدوں میں سر ہیں
بھٹکتے ہیں سجدے

سراسر سروں پر لٹکتے
ہیں سجدے 

نگاہ خضوع میں کھٹکتے
ہیں سجدے

دعاؤں سے دامن جھٹکتے
ہیں سجدے

وہ سجدوں کے شوقین
غازی کہاں ہیں ؟ 

زمیں پوچھتی ہے
نمازی کہاں ہیں ؟ 
  
چلو آؤ کرتے ہیں
توبہ کے سجدے

بہت تشنگی سے
توجہ کے سجدے  

مسیحا   کے   آگے
مداوا کے سجدے

ندامت  سے  سر خم
شکستہ سے سجدے

رضا والے سجدے،
وفا والے سجدے 

عمل کی طرف
رہنما والے سجدے

سراپاِ ادب
التجا والے سجدے
  
بہت عاجزی سے
حیا والے سجدے

نگاہوں کے دربان
رودار سجدے

وہ چہرے کی زہرہ
چمک دار سجدے

سراسر بدل دیں
جو کردار سجدے

کہ بن جائیں جینے کے
اطوار سجدے

خضوع کی قبا میں
یقین والے سجدے 

رفعا عرش پر ہوں
زمیں والے سجدے

لحد کے مکین
ہم نشیں والے سجدے

ہو شافع محشر
جبین والے سجدے

وہ سجدوں کے شوقین
غازی کہاں ہیں ؟

زمیں پوچھتی ہے
نمازی کہاں ہیں  ؟

مہمان کا اکرام

♻️ اردو سچی کہانیاں ♻️


          *○ مہمان  کا اکرام ○*


 صحابہ کرامؓ آپس میں ایک دوسرے سے بہت محبت رکھتے ، ہر ایک کی خبر خیریت معلوم کرتے تھے ۔ اگر کوئ صحابی دوسرے صحابی کے گھر مہمان ہوتے ، تو وہ دوسرے صحابی اپنے مہمان کی خوب عزت کرتے اور کھانے ، پینے ، آرام کرنے ؛ بلکہ ہر چیز میں ان کا پورا خیال رکھتے تھے ۔

     ایک مرتبہ کی بات ہے کہ حضرت سلمان فارسیؓ دوسرے خلیفہ حضرت عمر فاروقؓ کے پاس گئے ، اس وقت حضرت عمر فاروقؓ ایک تکیہ پر ٹیک لگائیں بیٹھے تھے ، جب انھوں نے حضرت سلمان فارسیؓ کو دیکھا ، تو اکرام میں ان کے لیے تکیہ رکھ دیا ؛ تاکہ وہ اس پر ٹیک لگاکر بیٹھیں ۔ حضرت سلمان فارسیؓ  نے جب دیکھا کہ حضرت عمر فاروقؓ نے میرے لیے تکیہ رکھ دیا ہے اور خود بغیر تکیہ کے بیٹھے ہوئے ہیں ، تو فرمایا : ” اللہ اور اس کے رسول نے سچ فرمایا “ حضرت عمر فاروقؓ نے کہا : بھائ سلمان ! اللہ اور اس کے رسول نے کیا سچ فرمایا ؟ ذرا مجھے بھی سنایئے ، حضرت سلمانؓ نے بتایا : ایک مرتبہ میں حضورﷺ کی خدمت میں حاضر ہوا ، آپ ﷺ ایک تکیہ پر ٹیک لگائے ہوئے تھے ، آپ نے وہ تکیہ میرے لیے رکھ دیا ، پھر آپ ﷺ نے مجھ سے فرمایا : اے سلمان ! جو مسلمان اپنے مسلمان بھائ کے پاس جاتا ہے اور وہ گھر والا اس مہمان کے اکرام میں تکیہ رکھ دیتا ہے ، تو اللہ تعالی اس کے گناہوں کو معاف فرما دیتے ہیں ۔ اسی طرح ایک دوسرے موقع پر حضرت عمر فاروقؓ ، حضرت سلمان فارسیؓ کے پاس گئے ، اس مرتبہ حضرت سلمان فارسیؓ نے ان کے لیے ایک تکیہ رکھ دیا ، حضرت عمر فاروقؓ نے پوچھا : سلمان ! یہ کیا بات ہے ؟ خود تو بغیر تکیہ کے بیٹھے ہوئے ہو اور میرے لیے تکیہ رکھ دیا ؟

     حضرت سلمان فارسیؓ نے کہا : میں نے حضورﷺ کو یہ فرماتے ہوئے سنا ہے کہ جس مسلمان کے پاس اس کا کوئ دوسرا مسلمان بھائ آتا ہے اور وہ آنے والے اپنے اس مسلمان بھائ کے اکرام میں ایک تکیہ رکھ دیتا ہے (تاکہ وہ اس پر ٹیک لگاکر آرام سے بیٹھے ، اور سونے کی طبیعت ہو ، تو سو جائے ) تو اللہ تعالی اس کے گناہوں کو معاف فرما دیتے ہیں ۔

    حیات الصحابة للکاندھلویؒ : ٣ / ٢٣١ ، مستدرک حاکم : ٦٥٤٢ ، عن انس بن مالکؓ

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اور وقت گزر گیا۔

سقراط نے جب زہر کا پیالہ پیا تو ایتھنز کے حکمرانوں نے سکھ کا سانس لیا کہ اُن کے نوجوانوں کو گمراہ کرنے والا جہنم رسید ہوا، یونان کی اشرافیہ جیت گئی، سقراط کی دانش ہار گئی۔ وقت گزر گیا۔

اسکاٹ لینڈ کی جنگ آزادی لڑنے والے دلاور ولیم والس کو جب انگلینڈ کے بادشاہ ایڈورڈ اوّل نے گرفتار کیا تو اُس پر غداری کا مقدمہ قائم کیا، اسے برہنہ کرکے گھوڑوں کے سموں کے ساتھ باندھ کر لندن کی گلیوں میں گھسیٹا گیا اور پھر ناقابل بیان تشدد کے بعد اُسے پھانسی دے کر لاش کے ٹکڑے ٹکڑے کر دیئے گئے۔ اُس وقت کا بادشاہ جیت گیا، ولیم والس ہار گیا۔ وقت گزر گیا۔

گلیلیو نے ثابت کیا کہ زمین اور دیگر سیارے سورج کے گرد گھومتے ہیں تو یہ کیتھولک عقائد کی خلاف ورزی تھی، چرچ نے گلیلیو پر کفر کا فتویٰ لگایا اور اسے غیرمعینہ مدت تک کے لئے قید کی سزا سنا دی، یہ سزا 1633میں سنائی گئی، گلیلیو اپنے گھر میں ہی قید رہا اور 1642 میں وہیں اُس کی وفات ہوئی، پادری جیت گئے سائنس ہار گئی۔ وقت گزر گیا۔

جیورڈانو برونو پر بھی چرچ کے عقائد سے انحراف کرنے کا مقدمہ بنا یاگیا، برونو نے اپنے دفاع میں کہا کہ اس کی تحقیق عیسائیت کے عقیدہ خدا اور اُس کی تخلیق سے متصادم نہیں مگر اُس کی بات نہیں سنی گئی اور اسے اپنے نظریات سے مکمل طور پر تائب ہونے کے لئے کہا گیا، برونو نے انکار کر دیا، پوپ نے برونو کو کافر قرار دے دیا، 8فروری1600کو جب اسے فیصلہ پڑھ کر سنایا گیا تو برونو نے تاریخی جملہ کہا ’’میں یہ فیصلہ سنتے ہوئے اتنا خوفزدہ نہیں ہوں جتنا تم یہ فیصلہ سناتے ہوئے خوفزدہ ہو۔‘‘برونو کی زبان کاٹ دی گئی اور اسے زندہ جلا دیا گیا۔ پوپ جیت گیا، برونو ہار گیا۔ وقت گزر گیا۔

حجاج بن یوسف جب خانہ کعبہ پر آگ کے گولے پھینک رہا تھا تو اُس وقت ابن زبیرؓ نے جوانمردی کی تاریخ رقم کی، انہیں مسلسل ہتھیار پھینکنے کے پیغامات موصول ہوئے مگر آپ ؓ نے انکار کردیا، اپنی والدہ حضرت اسماؓ سے مشورہ کیا، انہوں نے کہا کہ اہل حق اس بات کی فکر نہیں کیا کرتے کہ ان کے پاس کتنے مددگار اور ساتھی ہیں، جاؤ تنہا لڑو اور اطاعت کا تصور بھی ذہن میں نہ لانا، ابن زبیر ؓ نے سفاک حجاج بن یوسف کا مقابلہ کیا اور شہادت نوش فرمائی، حجاج نے آپؓ کا سر کاٹ کر خلیفہ عبد المالک کو بھجوا دیا اور لاش لٹکا دی، خود حضرت اسماؓ کے پاس پہنچا اور کہا تم نے بیٹے کا انجام دیکھ لیا، آپؓ نے جواب دیا ہاں تو نے اس کی دنیا خراب کر دی اور اُس نے تیری عقبیٰ بگاڑ دی۔ حجاج جیت گیا، ابن زبیر ؓ ہار گئے۔ وقت گزر گیا۔

ابو جعفر منصور نے کئی مرتبہ امام ابو حنیفہ ؒکو قاضی القضاۃ بننے کی پیشکش کی مگر آپ نے ہر مرتبہ انکار کیا، ایک موقع پر دونوں کے درمیان تلخی اس قدر بڑھ گئی کہ منصور کھلم کھلا ظلم کرنے پر اتر آیا، اُس نے انہیں بغداد میں دیواریں بنانے کے کام کی نگرانی اور اینٹیں گننے پر مامور کر دیا، مقصد اُن کی ہتک کرنا تھا، بعد ازاں منصور نے امام ابوحنیفہ کو کوڑے مارے اور اذیت ناک قید میں رکھا، بالآخر قید میں ہی انہیں زہر دے کر مروا دیا گیا، سجدے کی حالت میں آپ کا انتقال ہوا، نماز جنازہ میں مجمع کا حال یہ تھا کہ پچاس ہزار لوگ امڈ آئے، چھ مرتبہ نماز جنازہ پڑھی گئی۔ منصور جیت گیا، امام ابو حنیفہ ہار گئے۔ وقت گزر گیا۔

تاریخ میں ہار جیت کا فیصلہ طاقت کی بنیاد پر نہیں ہوتا، یونان کی اشرافیہ سقراط سے زیادہ طاقتور تھی مگر تاریخ نے ثابت کیا کہ سقراط کا سچ زیادہ طاقتور تھا۔ ولیم والس کی دردناک موت کے بعد اس کا نام لیوا بھی نہیں ہونا چاہئے تھا مگر آج ابیرڈین سے لے کر ایڈنبرا تک ولیم والس کے مجسمے اور یادگاریں ہیں، تاریخ میں ولیم والس امر ہو چکا ہے۔ گلیلیو پر کفر کے فتوے لگانے والی چرچ اپنے تمام فتوے واپس لے چکی ہے، رومن کیتھولک چرچ نے ساڑھے تین سو سال بعد تسلیم کیا کہ گلیلیو درست تھا اور اُس وقت کے پادری غلط۔ برونو کو زندہ جلانے والے بھی آج یہ بات مانتے ہیں کہ برونو کا علم اور نظریہ درست تھا اور اسے اذیت ناک موت دینے والے تاریخ کے غلط دوراہے پر کھڑے تھے۔

تاریخ میں حجاج بن یوسف کو آج ایک ظالم اور جابر حکمران کے طور پر یاد کیا جاتا ہے جس کی گردن پر ہزاروں بے گناہ مسلمانوں کا خون ہے جبکہ حضرت عبداللہ ابن زبیرؓ شجاعت اور دلیری کا استعارہ ہیں، حجاج کو شکست ہو چکی ہے ابن زبیرؓ فاتح ہیں۔ جس ابو جعفر منصور نے امام ابوحنیفہ کو قید میں زہر دے کر مروایا اس کے مرنے کے بعد ایک جیسی سو قبریں کھو دی گئیں اور کسی ایک قبر میں اسے دفن کر دیا گیا تاکہ لوگوں کو یہ پتہ نہ چل سکے کہ وہ کس قبر میں دفن ہے، یہ اہتمام اس خوف کی وجہ سے کیا گیا کہ کہیں لوگ اُس کی قبر کی بے حرمتی نہ کریں، گویا تاریخ کا فیصلہ بہت جلد آگیا۔

آج سے ایک سو سال بعد ہم میں سے کوئی بھی زندہ نہیں رہے گا، تاریخ ہمیں روندتی ہوئی آگے نکل جائے، آج یہ فیصلہ کرنا مشکل ہے کہ ہم میں سے کون تاریخ کی صحیح سمت میں کھڑا ہے اور کون تاریخ کے غلط دوراہے پر ہے. کون حق کا ساتھی ہے اور کون باطل کے ساتھ کندھا ملائے ہوئے ہے، کون سچائی کا علمبردار ہے اور کون جھوٹ کی ترویج کر رہا ہے، کون دیانت دار ہے اور کون بے ایمان، کون ظالم ہے اور کون مظلوم۔ ہم میں سے ہر کوئی خود کو حق سچ کا راہی کہتا ہے مگر ہم سب جانتے ہیں کہ یہ بات دنیا کا سب سے بڑا جھوٹ ہے، کیونکہ اگر ہر شخص نے حق کا علم تھام لیا ہے تو پھر اس دھرتی سے ظلم اور ناانصافی کو اپنے آپ ختم ہو جانا چاہئے لیکن سب اچھی طرح جانتے ہیں کہ ہم اُس منزل سے کہیں دور بھٹک رہے ہیں۔

 آج سے سو برس بعد البتہ جب کوئی مورخ ہمارا احوال لکھے گا تو وہ ایک ہی کسوٹی پر ہم سب کو پرکھے گا، مگر افسوس کہ اُس وقت تاریخ کا بے رحم فیصلہ سننے کے لئے ہم میں سے کوئی بھی زندہ نہیں ہوگا۔ سو آج ہم جس دور سے گزر رہے ہیں کیوں نہ خود کو ہم ایک بے رحم کسوٹی پر پرکھ لیں اور دیکھ لیں کہ کہیں ہم یونانی اشرافیہ کے ساتھ تو نہیں کھڑے جنہوں نے سقراط کو زہر کا پیالہ تھما دیا تھا، کہیں ہم برونو کو زندہ جلانے والے پادریوں کے ساتھ تو نہیں کھڑے، کہیں ہم حجاج کی طرح ظالموں کے ساتھ تو نہیں کھڑے، کہیں ہم امام ابوحنیفہ اور امام مالک پر کوڑے برسانے والوں کے ساتھ تو نہیں کھڑے، کہیں ہم ابن رشد کے خلاف فتویٰ دینے والوں کے ساتھ تو نہیں کھڑے….. کہیں ہم تاریخ کی غلط سمت میں تو نہیں کھڑے؟ اس سوال کا جواب تلاش کرکے خود کو غلطی پر تسلیم کرنا بڑے ظرف کا کام ہے جس کی آج کل شدید کمی ہے۔ وقت تو گزر ہی جاتا ہے، دیکھنا صرف یہ ہوتا ہے کہ کسی باضمیر نے وہ وقت کیسے گزارا!

Monday, September 24, 2018

سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 21.

*سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 21..*

*طلوع سحر:*
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حضرت عبداللہ کی شادی کے وقت عمر تقریبا" سترہ (17) یا بائیس (22) برس تھی.. عرب میں دستور تھا کہ دولہا شادی کے بعد تین ماہ تک اپنے سسرال میں رھائش پذیر رھتا.. چنانچہ حضرت عبداللہ بھی تین ماہ اپنے سسرال میں مقیم رھے.. بعد ازاں حضرت آمنہ کو لیکر مکہ اپنے گھر واپس آگئے..

اسلام سے پہلے دور جہالت میں باقائدہ نکاح کا کوئی عام رواج نہ تھا.. صرف خال خال ھی طبقہ اشرافیہ میں باقائدہ نکاح کیا جاتا ورنہ عام طور پر مرد و زن کے ازدواجی تعلقات زنا کی ھی صورت تھے.. اسلام کے بعد جن کے باقائدہ طریقے سے نکاح ھوۓ تھے ان کی شادیوں کو جائز اور صحیح سمجھا گیا اور ایسے جوڑوں کے اسلام لانے کے بعد ان کے قبل اسلام نکاحوں کو شریعت اسلامی کے مطابق درست قرار دیتے ھوۓ آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم نے ان کے دوبارہ نکاح کی ضرورت نہیں سمجھی تھی.. ایسا ھی ایک صحیح اور باقائدہ نکاح حضرت عبداللہ اور حضرت آمنہ کا ھوا.. اسی لیے آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کا فرمان مبارک ھے کہ "میری ولادت باقائدہ نکاح سے ھوئی.. نہ کہ (نعوذباللہ) زنا یا بدکاری سے.."

پہلے کی اقساط میں ذکر کیا جاچکا ھے کہ آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کے پردادا حضرت ھاشم کے دور سے قریش مکہ کے تجارتی قافلے ایران و شام اور یمن و ھند تک جایا کرتے تھے تو ایسا ھی ایک تجارتی قافلہ لیکر حضرت عبداللہ بھی شام کی طرف گئے.. وھاں سے واپس مکہ کی طرف لوٹتے ھوۓ راستہ میں یثرب (مدینہ) کے قریب وہ شدید بیمار پڑگئے.. چنانچہ وہ مدینہ میں ھی اپنے ننھیال اپنے ماموؤں کے پاس ٹھہر گئے جبکہ ان کے ھمسفر مکہ واپس آگئے..

جب حضرت عبدالمطلب نے ان کے ساتھ اپنے چہیتے بیٹے کو نہ دیکھا تو ان سے حضرت عبداللہ کے بارے میں پوچھا.. انہوں نے جب حضرت عبدالمطلب کو حضرت عبداللہ کی بیماری کا بتایا تو حضرت عبدالمطلب بےحد پریشان ھوگئے.. فورا" اپنے سب سے بڑے بیٹے "حارث" کو یثرب حضرت عبداللہ کی خیریت معلوم کرنے بھیجا لیکن جب جناب حارث یثرب پہنچے تو ان کو یہ اندوھناک خبر ملی کہ حضرت عبداللہ بیماری کی تاب نہ لاکر وفات پا چکے ھیں اور ان کو "دارالغابغہ" میں دفن بھی کیا جاچکا ھے..

جناب حارث جب یہ المناک خبر لیکر مکہ واپس آۓ تو حضرت عبدالمطلب اپنے جان سے پیارے بیٹے کی جواں موت کا سن کر شدت غم سے بےھوش ھوگئے.. حضرت آمنہ پر اپنے محبوب شوھر کی موت کا سن کر سکتہ طاری ھوگیا.. دوسری طرف سب بہن بھائی اپنی اپنی جگہ اس دکھ کے ھاتھوں بے حال تھے.. خاندان بنو ھاشم پر ایک مجموعی سوگ کا عالم چھا گیا کیونکہ حضرت عبداللہ اپنے حسن و جمال , لیاقت , کردار اور نابغہ روزگار شخصیت کی وجہ سے سارے خاندان کی آنکھ کا تارہ تھے مگر یہ روشن ستارہ محض پچیس سال کی عمر میں ھی ڈوب گیا اور یوں تمام جہانوں کے لیے رحمت بننے والے اللہ کے محبوب نبی صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم ابھی شکم مادر میں ھی تھے کہ یتیم ھوگئے..

جواں سال اور چہیتے بیٹے کی وفات کا غم حضرت عبدالمطلب کے لیے اگر سوھان روح تھا تو دوسری طرف محبوب شوھر کی موت کا دکھ حضرت آمنہ کے لیے لمحہ لمحہ کرب و اذیت کا باعث تھا لیکن اللہ نے ان دونوں کو زیادہ عرصہ غمزدہ نہ رھنے دیا اور حضرت عبداللہ کی وفات سے چند ماہ بعد بروز سوموار 9 ربیع الاول بمطابق 20 اپریل 571 ء کو حضرت آمنہ کے ھاں اللہ کے حبیب حضرت محمد صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم پیدا ھوۓ..

ایک کنیز کو فورا" حضرت عبدالمطلب کی طرف بھیجا گیا جو خوشی کے مارے دوڑتی ھوئی حضرت عبدالمطلب کے پاس پہنچی جو اس وقت (غالبا") حرم شریف میں موجود تھے.. اتنی بڑی خوش خبری کو سن کر حضرت عبدالمطلب فورا" گھر پہنچے اور جب انہوں نے "ننھے حضور" کو دیکھا تو اپنی جگہ کھڑے کے کھڑے رہ گئے اور پھر اپنے جذبات کا اظہار چند اشعار میں بیان کیا جن میں آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کے حسن و جمال کو "غلمان" کے حسن و جمال سے برتر بتایا.. پھر خدا کا شکر ادا کیا کہ اس نے آپ کو حضرت عبداللہ کا نعم البدل عطا فرمایا..

===========>جاری ھے.. 

سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 19.

*سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 19..*

*حضورﷺ کی پیدائش اور دو اہم واقعات:* 
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پچھلی قسط میں آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کے دادا حضرت عبدالمطلب کے بچپن اور پھر قریش مکہ کا سردار بننے کا ذکر کیا گیا.. اس قسط میں ان کی زندگی میں پیش آنے والے دو اھم تاریخی واقعات کا ذکر کیا جاۓ گا جن میں سے ایک واقعہ "عام الفیل" ھے.. جب یمن کا حکمران "ابرھہ بن اشرم" ایک لشکرجرار کے ساتھ خانہ کعبہ ڈھانے کی نیت سے مکہ پر چڑھ دوڑا تھا مگر اللہ نے چھوٹے چھوٹے پرندوں کے ذریعے اسے عبرت ناک انجام تک دوچار کیا.. (یہ واقعہ تفصیل کے ساتھ سابقہ اقساط میں بیان ھوچکا ھے)

دوسرا اھم واقعہ چاہ زمزم کی ازسرنو کھدائی تھی.. دراصل مدتوں پہلے جب مکہ پر قبیلہ بنو جرھم قابض تھا تو چاہ زمزم پر ملکیتی جھگڑے کی وجہ سے اسے مٹی سے پاٹ دیا گیا اور پھر وقت گزرنے کے ساتھ اس کنویں کا بظاھر نشان تک باقی نہ رھا..

حضرت علی رضی اللہ عنہ اپنے والد حضرت ابوطالب سے سن کر بیان فرماتے ھیں کہ ایک روز جب حضرت عبدالمطلب اپنے حجرے میں سوئے تو انہوں نے خواب دیکھا کہ انہیں زمزم کا کنواں کھودنے کا حکم دیا جارہا ہے اور خواب ہی میں انہیں اس کی جگہ بھی بتائی گئی جوکہ حرم کعبہ کے اندر عین اس جگہ تھی جہاں "اساف و نائلہ" کے بت نصب تھے..

جب حضرت عبدالمطلب نے قریش مکہ اور دوسرے قبائل مکہ کے آگے اس قصے کا ذکر کیا تو ان کی بات پر کسی نے یقین نہ کیا اور نہ ھی کھدائی کے اس کام میں ان کی کسی نے مدد کی.. اس وقت حضرت عبدالمطلب کے صرف ایک ھی بیٹے "حارث" تھے جن کے ساتھ مل کر اس جگہ کو کھودنا شروع کیا جہاں خواب کے ذریعے رھنمائی ھوئی تھی.. چار دن کے بعد پانی ظاھر ھو گیا اور زم زم کا کنواں مل گیا جس میں سے مسلسل پانی ملنے لگا جو آج تک جاری ھے..

چونکہ یہ کنواں بنیادی طور پر حضرت اسمٰعیل علیہ السلام کے قدموں سے جاری ھوا تھا اس لیے قریش کے باقی قبائل نے اس کی ملکیت میں حصہ دار بننا چاھا.. حضرت عبدالمطلب کا خیال تھا کہ زمزم اللہ نے ان کو عطا کیا ھے.. اس جھگڑے کو نمٹانے کے لیے عرب کے دستور کے مطابق کسی باعلم اور دانش مند شخص پر فیصلہ چھوڑا گیا.. قبائل کے مختلف نمائندے جن میں حضرت عبدالمطلب شامل تھے , شام کو روانہ ھوئے تاکہ وہاں کی ایک مشہور کاھنہ (روحانی علوم کی ماھر عورت) سے مشورہ کیا جائے.. اس کی وجہ یہ تھی کہ عرب لوگ کاھنوں کی بات کو اھمیت دیتے تھے..

یہ چھوٹا سا قافلہ ابھی مکہ سے کچھ ھی دور پہنچا تھا کہ سواۓ حضرت عبدالمطلب کے تمام لوگوں کے پاس موجود پانی ختم ھوگیا اور شدت پیاس سے سب مرنے والے ھوگئے.. باقی قبائل نے ان کو پانی دینے سے انکار کر دیا اور نوبت یہاں تک پہنچی کہ ان کے ساتھیوں نے کچھ قبریں بھی کھود لیں تاکہ جو پہلے مر جائیں ان کو دوسرے دفنا دیں.. اگلے دن حضرت عبدالمطلب نے فیصلہ کیا کہ موت سے ڈرنے کی ضرورت نہیں اور سفر جاری رکھنا چاھئیے.. وہ اپنے اونٹ پر بیٹھنے لگے تو اونٹ کا پاؤں زمیں پر ایک جگہ زور سے پڑا اور کچھ زیر زمین پانی نظر آیا.. وہاں ایک چشمہ برآمد ھو گیا جس سے انہوں نے اور دوسرے تمام قبائل نے استفادہ کیا..

یہ کرشمہ قدرت دیکھ کر سب تسلیم کرنے پر مجبور ھوگئے کہ ضرور کوئی غیبی طاقت حضرت عبدالمطلب کے ساتھ ھے.. اس وقت دوسرے تمام قبائلی نمائندوں نے فیصلہ کیا کہ زم زم کے جھگڑے کا فیصلہ اللہ نے اسی جگہ حضرت عبدالمطلب کے حق میں یہ پانی جاری کرکے کیا ھے اس لیے واپس مکہ جایا جائے..

یہی موقع تھا جب حضرت عبدالمطلب نے نذرمانی کہ اگر اللہ نے انہیں دس لڑکے عطا کیے اور وہ سب کے سب اس عمر کو پہنچے کہ ان کا بچاؤ کر سکیں تو وہ ایک لڑکے کو کعبہ کے پاس قربان کردیں گے..

===========>جاری ھے..

سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 20

*سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 20..*

*حضرت عبداللہ اور حضرت آمنہ کی شادی..*
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حضرت عبداللہ ابن عبدالمطلب 545ء میں پیدا ھوئے.. آپ کی والدہ کا نام فاطمہ بنت عمرو تھا.. آپ دینِ حنیف (دینِ ابراھیمی) پر قائم تھے اور ان کی بت پرستی اور کسی اخلاقی برائی (جو ان دنوں عرب میں عام تھیں) کی کوئی ایک روایت بھی نہیں ملتی.. حضرت عبدالمطلب نے منت مانی تھی کہ اگر ان کے دس بیٹے پیدا ھوۓ اور سب کے سب نوجوانی کی عمر کو پہنچ گئے تو وہ اپنا ایک بیٹا اللہ کی راہ میں قربان کردیں گے.. اس واقعہ کی تفصیل بھی پچھلی اقساط میں گزر چکی ھے لہذہ اس سے آگے کے واقعات کی طرف چلتے ھیں..

حضرت عبداللہ جب قربانی سے بچ نکلے تو حضرت عبدالمطلب نے ان کی شادی کا سوچا.. حضرت عبداللہ اپنے والد اور دادا کی طرح نہائت ھی حسین وجمیل اور وجیہہ انسان تھے.. مکہ کی کئی شریف زادیاں ان سے شادی کی خواھش مند تھیں مگر پیارے نبی حضرت محمد صلی اللہ علیہ و آلہ وسلم کی والدہ محترمہ بننے کی سعادت حضرت آمنہ بنت وھب کی قسمت میں لکھی تھی..

ان شریف زادیوں کی اس خواھش کے پیچھے صرف حضرت عبداللہ کی ظاھری شخصیت ھی وجہ نہ تھی بلکہ اس کی اصل وجہ وہ نور نبوت تھا جو ان کی پیشانی میں چاند کی طرح چمکتا تھا.. ان عورتوں میں ایک عورت حضرت خدیجہ رضی اللہ عنہ کی چچا کی بیٹی اور مشہور "ورقہ بن نوفل" کی بہن "ام قتال" تھیں.. ان کے بھائی ورقہ بن نوفل انجیل و سابقہ صحائف آسمانی کے علوم کے ماھر تھے اور ان کی وجہ سے ام قتال جانتی تھیں کہ حضرت عبداللہ کی پیشانی میں چمکنے والا نور , نور نبوت ھے اور اسی لیے ان کی خواھش تھی کہ یہ نور ان کے بطن سے جنم لے..

دوسری عورت ایک کاھنہ "فاطمہ بنت مرالخثعمیہ" تھیں جنہوں نے اپنی روحانی استعداد سے جان لیا تھا کہ حضرت عبداللہ کی پیشانی میں جو نور دمکتا ھے وہ نور نبوت ھے اس لیے یہ بھی حضرت عبداللہ سے شادی کی خواھشمند تھیں تاھم حضرت عبدالمطلب کی نظر انتخاب حضرت آمنہ پر جاکر رکی جو قبیلہ زھرہ کے سردار "وھب بن عبد مناف بن زھرہ بن کلاب" کی بیٹی تھیں اور قریش کے تمام خاندانوں میں اپنی پاکیزگی اور نیک فطرت کے لحاظ سے ممتاز تھیں.. اس وقت وہ اپنے چچا "وھیب بن عبدمناف بن زھرہ" کے پاس مقیم تھیں..

حضرت عبدالمطلب وھیب کے پاس گئے اور حضرت عبداللہ کے لیے حضرت آمنہ کا رشتہ مانگا جسے قبول کرلیا گیا اور یوں حضرت عبداللہ اور حضرت آمنہ رشتہ ازدواج میں منسلک ھوگئے.. اس موقع پر خود حضرت عبدالمطلب نے بھی ایک کاھن کی کہنے پر وھیب بن عبدمناف کی بیٹی "ھالہ" سے شادی کرلی جن سے حضرت صفیہ رضی اللہ عنہا اور حضرت حمزہ رضی اللہ عنہ جیسے جری شیر پیدا ھوۓ.. حضرت حمزہ رضی اللہ عنہ آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کے چچا ھونے کے ساتھ ساتھ ماں کے رشتے سے خالہ زاد بھائی بھی تھے کیونکہ جناب ھالہ اور حضرت آمنہ آپس میں چچازاد بہنیں بھی تھیں..

دوسری طرف جب اس شادی کا علم ام قتال اور فاطمہ بنت مرالخثعمیہ کو ھوا تو وہ بےحد رنجیدہ ھوئیں اور اس سعادت کو حاصل کرنے میں ناکامی پر رو پڑیں..

ان کا رونا واقعی میں حق بجانب تھا کہ نبی آخرالزماں صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کی والدہ ھونے کا اعزاز ساری دنیا کی قیمت سے بڑھ کر تھا اور یہ اعزاز اللہ نے حضرت آمنہ کے نصیب میں لکھ دیا تھا..

===========>جاری ھے..

سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 15..

*سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 15..*

*ظہور اسلام سے قبل عربوں کے سیاسی حالات:*
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پچھلی 2 اقساط میں عربوں کے معاشی اور معاشرتی حالات بیان کیے گئے.. اس قسط میں مختصرا" اس دور کے سیاسی حالات بیان کیے جارھے ھیں..

ظہور اسلام سے پہلے عرب قبائلی نظام میں تقسیم تھے اور سرزمین عرب کے ریگستانوں میں دانہ ھاۓ تسبیح کی طرح بکھرے ھوۓ تھے.. قبائل کا سیاسی نظام نیم جمہوری تھا.. قبیلہ کا ایک سردار مقرر ھوتا جس کی شجاعت , قابلیت اور فہم و فراست کے علاوہ سابقہ سردار سے قرابت داری کا بھی لحاظ رکھا جاتا.. تمام لوگ اپنے سردار کی اطاعت کرتے تاھم سردار قبیلہ کے بااثر لوگوں سے صلاح مشورہ بھی کرلیتا..

عرب قوم کیونکہ اکھڑ مزاج قوم تھی تو بعض اوقات کسی معمولی سی بات پر اگر دو مختلف قبیلے کے افراد میں جھگڑا ھوجاتا تو اسے پورے قبیلے کی انا کا مسلہ بنا لیا جاتا اور پھر مخالف قبیلے کے خلاف اعلان جنگ کردیا جاتا.. بسا اوقات یہ جنگیں مدتوں جاری رھتیں.. مثلا" بنو تغلب اور بنو بکر میں بسوس نامی ایک اونٹنی کو مار ڈالنے پر جنگ کا آغاز ھوا اور یہ جنگ پھر چالیس برس جاری رھی..

جب ھم جزیرہ نما عرب کے اطراف پر نظر ڈالتے ھیں تو ایک طرف روم کی عظیم بازنطینی سلطنت اور دوسری طرف ایران کی عظیم ساسانی سلطنت نظر آتی ھیں.. جزیرہ نما عرب کو ایک لحاظ سے ان دو عظیم ھمسایہ حکومتوں کے درمیان ایک "بفر سٹیٹ" کا درجہ حاصل تھا..

اھل عرب ان دو ھمسایہ سلطنتوں کو " اسدین غالب" (دو طاقتور غالب شیر) کہا کرتے تھے.. اس وقت یہ دنیا کی دو سب سے طاقتور ترین اقوام تھیں جو کئی صدیوں سے آپس میں برسر پیکار تھیں.. کبھی رومی ایرانیوں کو پامال کرتے ھوۓ شکست فاش سے دوچار کردیتے اور کبھی میدان جنگ میں ایرانیوں کی فتح کے طبل بجتے..

روم کی بازنطینی سلطنت کا حکمران "قیصر" کے لقب سے حکومت کرتا جبکہ ایران کی ساسانی سلطنت کا حکمران "کسری' " کہلاتے.. آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کے دور میں روم پر قیصر "ھرقل" کی حکومت تھی جبکہ ایران پر آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کے بچپن میں مشھور ایرانی بادشاہ "نوشیرواں" کی حکومت تھی جبکہ اس کے بعد "خسرو پرویز" ایران کا شہنشاہ بنا جس نے آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کے تبلیغی خط کو پھاڑنے کی گستاخی کی تھی..

یہاں میں عربوں کی تاریخ اور آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کی ولادت مبارکہ کے وقت سرزمین عرب کے عمومی حالات کا سلسلہ تمام کرتا ھوں.. ان شاء اللہ اگلی قسط سے سیرت نبوی صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کا باقاعدہ آغاز ھوگا..

===========> جاری ھے..

سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 16..

*سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 16..*

*شجرہ نسب محمدرسول اللّٰہ ﷺ* 
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شروع کی اقساط میں قریش مکہ کی تاریخ بیان کی گئی جس میں آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کے آباء و اجداد کا مختصر ذکر بھی آیا.. اب ان کا دوبارہ تفصیلی ذکر کیا جارھا ھے..

آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کا سلسلہ نسب بہت سی تاریخی شہادتوں اور حوالوں کے مطابق چالیس پشت بعد حضرت اسماعیل علیہ السلام سے جا ملتا ھے تاھم آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کے تمام تر بزرگوں کے ناموں کے متعلق مستند معلومات نہ ھونے کی وجہ سے آپ کا سلسلہ نسب حضرت "عدنان" تک جا کر روک دیا جاتا ھے.. حضرت عدنان حضرت اسماعیل علیہ السلام سے کوئی بیس پشت بعد پیدا ھوۓ.. انہی کے نام پر بنو اسماعیل کو بنو عدنان بھی کہا جاتا ھے.. حضرت عدنان تک آپ کا سلسلہ نسب کچھ یوں ھے..

حضرت محمد(صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم) بن عبداللہ بن عبدالمطلب (شَیْبَہ) بن ہاشم (عمرو ) بن عبد مناف (مغیرہ) بن قصی (زید) بن کلاب بن مرہ بن کعب بن لُوی بن غالب بن فِہر بن مالک بن نضر (قیس) بن کنانہ بن خزیمہ بن مدرکہ (عامر ) بن الیاس بن مضر بن نِزار بن مَعَد بن عَدْنان..

ابن ہشام ۱/۱ , ۲ تاریخ الطبری ۲/۲۳۹-۲۷۱..

عدنان سے اوپر کے سلسلۂ نسب کی صحت پر اہل سِیر اور ماہرینِ انساب کا اختلاف ہے.. کسی نے توقف کیا ہے اور کوئی قائل ہے.. یہ عدنان سے اوپر ابراہیم علیہ السلام تک منتہی ہوتا ہے..

عدنان بن أد بن ہمیسع بن سلامان بن عوص بن یوز بن قموال بن أبی بن عوام بن ناشد بن حزا بن بلداس بن یدلاف بن طابخ بن جاحم بن ناحش بن ماخی بن عیض بن عبقر بن عبید بن الدعا بن حمدان بن سنبر بن یثربی بن یحزن بن یلحن بن أرعوی بن عیض بن ذیشان بن عیصر بن أفناد بن أیہام بن مقصر بن ناحث بن زارح بن سمی بن مزی بن عوضہ بن عرام بن قیدار بن اسماعیل علیہ السلام بن ابراہیم علیہ السلام..

طبقات ابن سعد ۱/۵۶،۵۷.. تاریخ طبری ۲/۲۷۲..

حضرت ابراہیم علیہ السلام سے اوپر کے سلسلۂ نسب میں یقینا کچھ غلطیاں ہیں.. یہ حضرت ابراہیم علیہ السلام سے اوپر حضرت آدم علیہ السلام تک جاتا ہے..

حضرت ابراہیم علیہ السلام بن تارح (آزر ) بن ناخور بن ساروع (یاساروغ) بن راعو بن فالخ بن عابر بن شالخ بن ارفخشد بن سام بن نوح علیہ السلام بن لامک بن متوشلخ بن اخنوخ (کہا جاتا ہے کہ یہ ادریس علیہ السلام کا نام ہے) بن یرد بن مہلائیل بن قینان بن آنوشہ بن شیث علیہ السلام بن آدم علیہ السلام..

ابن ہشام ۱/۲-۴.. تاریخ طبری ۲/۲۷۶..

بعض ناموں کے متعلق ان مآخذ میں اختلاف بھی ہے اور بعض نام بعض مآخذ سے ساقط بھی ہیں..

===========> جاری ھے..

سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 17.

*سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 17..*

*تذکرۂ خانوادۂ نبی کریم ﷺ (حصہ اول)* 
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نبی کریم صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کا خانوادہ اپنے جد اعلیٰ "ہاشم بن عبد مناف" کی نسبت سے خانوادۂ ہاشمی کے نام سے معروف ہے.. مناسب معلوم ہوتا ہے کہ خانوادۂ نبی کریم صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کے بعض نام ور افراد کے مختصر حالات پیش کر دیے جائیں..

1.. قصی بن کلاب..
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قصی بن کلاب آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم سے پانچ پشت پہلے کے بزرگ ھیں.. دراصل یہ ھی قصی بن کلاب ھیں جنہوں نے نہ صرف بنو خزاعہ سے خانہ کعبہ کی تولیت کا حق واپس لیا بلکہ اپنی قوم بنی اسماعیل اور قبیلے بنی قریش کو منظم و متحد کرکے مکہ کو ایک باقائدہ ریاستی شھر کی شکل دی.. خانہ کعبہ کی تولیت ایک ایسا شرف تھا جس کی وجہ سے قصی بن کلاب اور ان کی آل اولاد کو نہ صرف مکہ بلکہ پورے جزیرہ نما عرب میں ایک خصوصی سیادت اور عزت و احترام کا درجہ حاصل ھوگیا اور قصی بن کلاب نے خود کو اس کا اھل ثابت بھی کیا..

قصی بن کلاب کو بلامبالغہ مکہ کی شھری ریاست کا مطلق العنان بادشاہ کا درجہ حاصل تھا.. انہوں نے نہ صرف خانہ کعبہ گرا کر نئے سرے سے اس کی تعمیر کرائی بلکہ پہلی دفعہ اس پر کجھور کے پتوں سے چھت بھی ڈالی.. اس کے علاوہ خانہ کعبہ کے جملہ انتظام کا جائزہ لے کر اس میں ضروری اصلاحات بھی کیں..

دوسری طرف خانہ کعبہ کے پاس ھی ایک عمارت تعمیر کرائی جسے "دارالندوہ" کا نام دیا گیا.. یہاں بنو اسماعیل اور مکہ کے دوسرے قبائل کے سرداروں اور عمائدین کے ساتھ ملکر مختلف امور کے متعلق بحث و تمحیث کے بعد فیصلے کیے جاتے.. قریش جب کوئی جلسہ یا جنگ کی تیاری کرتے تو اسی عمارت میں کرتے.. قافلے یہیں سے تیار ھو کر باھر جاتے.. نکاح اور دیگر تقریبات کے مراسم بھی یہیں ادا ھوتے..

اس کے علاوہ مختلف ریاستی امور نبٹانے کے لیے چھ مختلف شعبے قائم کیے اور ان کا انتظام اپنے بیٹوں میں تقسیم کردیا جسے ان کی وفات کے بعد ان کے پوتوں نے باھمی افہام و تفہیم سے چھ شعبوں سے بڑھا کر دس شعبوں میں تقسیم کرکے آپس میں بانٹ لیا..

2.. حضرت ھاشم بن عبد مناف..
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حضرت ھاشم بن عبد مناف قصی بن کلاب کے پوتے تھے.. جب عبد مناف اور بنو عبد الدار کے درمیان عہدوں کی تقسیم پر مصالحت ہوگئی تو عبدمناف کی اولاد میں حضرت ہاشم ہی کو سِقَایہ اور رِفادہ یعنی حجاج کرام کو پانی پلانے اور ان کی میزبانی کرنے کا منصب حاصل ہوا.. حضرت ہاشم بڑے مالدار اور نہایت ھی جلیل القدر بزرگ تھے.. ان کا اصل نام عمرو تھا.. چونکہ ان کے زمہ حاجیوں کے کھانے پینے کا انتظام بھی تھا تو وہ ان زائرین کی تواضع ایک خاص قسم کے عربی کھانے سے کرتے جسے "ھشم" کہا جاتا تھا.. (عربی زبان میں ھشم شوربہ میں روٹیاں چورا کرنے کو کہتے ھیں..) مکہ میں ایک سال قحط پڑا تو انہوں نے تمام اھل مکہ کے لیے یہی شوربہ تیار کرایا جس پر انہیں "ھاشم" کا لقب ملا اور تاریخ نے پھر انہیں اسی لقب سے یاد رکھا..

ان کی اولاد قریش کے معزز ترین قبیلہ بنو ھاشم کے نام سے مشھور ھے.. انہوں نے قریش کے تجارتی قافلے شروع کروائے اور ان کے لیے بازنطینی سلطنت کے ساتھ معاہدے کیے جن کے تحت قریش بازنطینی سلطنت کے تحت آنے والے ممالک میں بغیر محصول ادا کیے تجارت کر سکتے تھے اور تجارتی قافلے لے جا سکتے تھے.. یہی معاہدے وہ حبشہ کے بادشاہ کے ساتھ بھی کرنے میں کامیاب ھوئے جس کا تمام قریش کو بے انتہا فائدہ ھوا اور ان کے قافلے شام , حبشہ , ترکی اور یمن میں جانے لگے..

ایک بار تجارت کی غرض سے شام گئے.. دوران سفر یثرب (جس کا نام بعد میں مدینہ یا مدینۃ الرسول صلی اللہ علیہ و آلہ وسلم ھوا..) میں ٹھہرے.. وھاں قبیلہ بنی نجار کی ایک خاتون "سَلْمیٰ بنت عَمْرو" سے شادی کرلی اور کچھ دن وہیں ٹھہرے رہے.. پھر بیوی کو حالتِ حمل میں میکے ہی میں چھوڑ کر ملک شام روانہ ہوگئے.. غالبا" ان کا ارادہ تھا کہ واپسی پر ان کو مدینہ سے مکہ لے جائیں گے مگر شادی سے چند ماہ بعد دوران سفر ھی ان کا انتقال فلسطین کے علاقے غزہ میں ھو گیا..

===========>جاری ھے..

سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط 18

*سيرت النبي صلي الله عليه وسلم..قسط 18..*

*تذکرۂ خانوادۂ نبی کریم صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم.. (حصہ دوم)*
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3.. حضرت عبد المطلب..
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پچھلی قسط میں حضرت ہاشم کے سفر شام , یثرب میں نکاح اور پھر فلسطین میں وفات کا ذکر کیا گیا.. ان کی وفات کے بعد 497ء میں ان کی زوجہ سلمی' سے ایک بیٹا پیدا ھوا.. چونکہ بچے کے سر کے بالوں میں سفیدی تھی اس لیے جناب سلمیٰ نے اس کا نام "شَیْبہ" رکھا اور یثرب میں اپنے میکے ہی کے اندر اس کی پرورش کی.. آگے چل کر یہی بچہ "عبد المُطَّلِبْ" کے نام سے مشہور ہوا.. عرصے تک خاندانِ ہاشم کے کسی آدمی کو اس کے وجود کا علم نہ ہوسکا..

سِقَایہ اور رِفادہ کا منصب ہاشم کے بعد ان کے بھائی مطلب کو ملا.. یہ بھی اپنی قوم میں بڑی خوبی واعزاز کے مالک تھے.. ان کی سخاوت کے سبب قریش نے ان کا لقب "فیاض" رکھ چھوڑا تھا.. جب شیبہ یعنی عبدالمطلب سات یا آٹھ برس کے ہوگئے تو مطلب کو ان کا علم ہوا اور وہ انہیں لینے کے لیے روانہ ہوئے.. جب یثرب کے قریب پہنچے اور شیبہ پر نظر پڑی تو اشک بار ہوگئے.. انہیں سینے سے لگا لیا اور پھر اپنی سواری پر پیچھے بٹھا کر مکہ کے لیے روانہ ہوگئے مگر شیبہ نے ماں کی اجازت کے بغیر ساتھ جانے سے انکار کردیا.. اس لیے مطلب ان کی ماں سے اجازت کے طالب ہوئے.. آخر ماں نے اجازت دے دی اور مُطَّلِب انہیں اپنے اونٹ پر بٹھا کر مکہ لے آئے.. مکے والوں نے دیکھا تو کہا "یہ عبدالمطب ہے" یعنی مُطَّلب کا غلام ہے.. مطلب نے کہا "نہیں نہیں __ یہ میرا بھتیجا یعنی میرے بھائی ہاشم کا لڑکا ہے".. پھر شَیبہ نے مطلب کے پاس پرورش پائی اور جوان ہوئے..

مکہ آنے کے کچھ عرصہ بعد ھی مطلب بن عبد مناف کی وفات یمن کے سفر میں ھو گئی تو ان کے چھوڑے ہوئے مناصب عبدالمطلب کو حاصل ہوئے.. سرداری اور کعبہ کے زائرین کی خدمت پر , جو مطلب بن عبد مناف نے حضرت عبد المطلب کے سپرد کی تھی , نوفل بن عبد مناف نے قبضہ کرنا چاھا.. حضرت عبد المطلب نے قریش کی مدد طلب کی مگر شنوائی نہ ھوئی.. اس کے بعد حضرت عبد المطلب نے اپنے ماموں ابو سعد (ان کا تعلق بنو نجار سے تھا..) کی مدد طلب کی جو 80 گھڑ سواروں کے ساتھ ان کی مدد کے لیے آئے.. انہوں نے نوفل بن عبد مناف سے کہا کہ "اے نوفل ! اگر تو نے عبد المطلب سے چھینا جانے والا حق انہیں واپس نہ کیا تو میں تلوار سے تمہاری گردن اڑا دوں گا.."

اس پر نوفل نے ان کی بات مان لی.. اس بات پر قریش کے معززین کو گواہ بنایا گیا مگر جب حضرت عبد المطلب کے ماموں واپس مدینہ چلے گئے تو نوفل بن عبد مناف نے عبد شمس بن عبد مناف (بنو امیہ ان کی نسل سے ھیں) اور اس کی اولاد کے ساتھ ایک معاہدہ کیا اور حضرت عبد المطلب کے خلاف تحریک شروع کی.. بنو خزاعہ نے بنو ھاشم کا ساتھ دیا اور بیت الندوہ میں بنو ھاشم سے ان کا ساتھ دینے کا عہد کیا.. اس طرح قریش کی سرداری حضرت عبد المطلب کے پاس ھی رھی..

حضرت عبدالمطلب نے اپنی قوم میں اس قدر شرف واعزاز حاصل کیا کہ ان کے آباء واجداد میں بھی کوئی اس مقام کو نہ پہنچ سکا تھا.. قوم نے انہیں دل سے چاہا اور ان کی بڑی عزت و قدر کی..

4.. حضرت عبداللہ.. (رسول اللہ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کے والد محترم)
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حضرت عبدالمطلب کے کل دس بیٹے اور چھ بیٹیاں تھے جن کے نام یہ ہیں..

حارث , زبیر , ابوطالب , عبداللہ , حمزہ (رضی اللہ عنہ), ابولہب , غَیْدَاق , مقوم , صفار اور عباس (رضی اللہ عنہ)..

ام الحکیم (ان کا نام بیضاء ہے) بَرّہ , عَاتِکہ , اَروی ٰ, اُمَیْمَہ اور صفیہ (رضی اللہ عنہا)..

حضرت عبداللہ کی والدہ کا نام فاطمہ تھا اور وہ عمرو بن عائذ بن عمران بن مخزوم بن یقظہ بن مرہ کی صاحبزادی تھیں.. عبدالمطلب کی اوّلاد میں عبداللہ سب سے زیادہ خوبصورت , پاک دامن اور چہیتے تھے اور ذبیح کہلاتے تھے.. ذبیح کہلانے کی وجہ یہ تھی کہ حضرت عبدالمطلب کو بہت خواھش تھی کہ وہ کثیر اولاد والے ھوں چنانچہ انہوں نے منت مانی کہ اگر اللہ ان کو دس بیٹے عطا کرے گا اور وہ سب نوجوانی کی عمر تک پہنچ گئے تو وہ اپنا ایک بیٹا اللہ کی راہ میں قربان کردیں گے.. اللہ نے ان کی دعا کو شرف قبولیت بخشا اور ان کے دس بیٹے پیدا ھوئے.. دس بیٹوں کی پیدائش کے بعد جب تمام کے تمام نوجوانی کی عمر کو پہنچے تو حضرت عبدالمطلب کو اپنی منت یاد آئی.. چنانچہ وہ اپنے سب بیٹوں کو لیکر حرم کعبہ میں پہنچ گئے.. جب عربوں کے مخصوص طریقے سے قرعہ اندازی کی گئی تو قرعہ حضرت عبداللہ کے نام نکلا.. چنانچہ حضرت عبدالمطلب حضرت عبداللہ کو لیکر قربان گاہ کی طرف بڑھے..

یہ دیکھ کر خاندان بنو ھاشم کے افراد جن کو حضرت عبداللہ سے بہت لگاؤ تھا' بہت پریشان ھوۓ.. وہ حضرت عبدالمطلب کے پاس آۓ اور انہیں اس سلسلے میں یثرب (مدینہ) کی ایک کاھنہ عورت سے مشورہ کرنے کو کہا.. چنانچہ جب اس کاھنہ عورت سے رابطہ کیا گیا تو اس نے اس کا حل یہ نکالا کہ حضرت عبداللہ کی جگہ خون بہا ادا کیا جاۓ.. عربوں کے دیت (خون بہا) میں دس اونٹ دیے جاتے ھیں تو حضرت عبداللہ کے ساتھ دس دس اونٹوں کی قرعہ اندازی کی جاۓ اور یہ قرعہ اندازی تب تک جاری رکھی جاۓ جب تک قربانی کا قرعہ اونٹوں کے نام نہیں نکلتا.. چنانچہ ایسے ھی کیا گیا اور بالآخر دسویں بار قرعہ حضرت عبداللہ کے بجاۓ اونٹوں پر نکلا.. اس طرح ان کی جگہ سو اونٹوں کو قربان کیا گیا..

حضرت عبداللہ کی شادی حضرت آمنہ سے ھوئی جو وہب بن عبد مناف بن زہرہ بن کلاب کی صاحبزادی تھیں اور نسب و رتبے کے لحاظ سے قریش کی افضل ترین خاتون شمار ہوتی تھیں.. ان کے والد نسب اور شرف دونوں حیثیت سے بنو زہرہ کے سردار تھے.. وہ مکہ ہی میں رخصت ہو کر حضرت عبداللہ کے پاس آئیں مگر تھوڑے عرصے بعد حضرت عبداللہ کو حضرت عبدالمطلب نے کھجور لانے کے لیے مدینہ بھیجا اور وہ وہیں انتقال کر گئے..

بعض اہل سِیر کہتے ہیں کہ وہ تجارت کے لیے ملک شام تشریف لے گئے تھے.. قریش کے ایک قافلے کے ہمراہ واپس آتے ہوئے بیمار ہو کر مدینہ اترے اور وہیں انتقال کر گئے.. تدفین نابغہ جَعدی کے مکان میں ہوئی.. اس وقت ان کی عمر پچیس برس کی تھی.. اکثر مؤرخین کے بقول ابھی رسول اللہ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم پیدا نہیں ہوئے تھے.. البتہ بعض اہل سیر کہتے ہیں کہ آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کی پیدائش ان کی وفات سے دو ماہ پہلے ہوچکی تھی..

===========>جاری ھے..

سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط: 12


*سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط: 12*

*آپ ﷺ کی ولادت کے وقت سرزمین عرب میں موجود باقی مذاہب اور ادیان کا مختصر سا جائزہ:* 

سابقہ اقساط میں مشرکین حجاز و عرب کے عقائد اور بت پرستی کی تاریخ اور مذھب یہودیت و عیسائیت کا تذکرہ کیا گیا، اس قسط میں ہم آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم کی ولادت مبارکہ کے وقت سرزمین عرب میں موجود باقی مذاھب اور ادیان کا ایک مختصر جائزہ پیش کریں گے۔

*آتش پرست:* 

ایران و عراق کی سرحد کے پاس آباد عرب قبائل ایرانیوں کے مذھب آتش پرستی سے بہت متاثر ہوئے، اہل ایران کی طرح یہ بھی نیکی اور بدی کے دو الگ الگ خداؤں کے قائل تھے اور اہل ایران کی طرح آگ کو خدا کا ظہور مانتے اور اس کی پوجا کرتے تھے۔

*صائبی۔* 

عرب جاہلیت میں ایسے لوگ بھی تھے جن میں ستارہ پرستی کا چرچا تھا اور یہ ستاروں کی پوجا کرتے تھے، غالباً ان کا مذہب وادی دجلہ و فرات کی قدیم تہذیبوں کی باقیات میں سے تھا، ان کا دعویٰ تھا کہ ان کا مذہب الہامی مذہب ہے اور وہ حضرت شیث علیہ السلام اور حضرت ادریس علیہ السلام کے پیروکار ہیں، ان کے ہاں سات وقت کی نماز اور ایک قمری مہینہ کے روزے بھی تھے، ان کو مشرک عرب معاشرہ صابی یعنی بے دین کہہ کر پکارتا تھا، یمن کا مشہور قبیلہ "حمیر" سورج کی پوجا کرتا تھا، قبیلہ اسد سیارہ عطارد کی اور قبیلہ لحم و جزام سیارہ مشتری کو دیوتا مان کر پوجتے تھے، بعض لوگ قطبی ستارہ کے پجاری تھے اور قطب شمالی کی طرف منہ کرکے عبادت کرتے تھے، یہ لوگ خانہ کعبہ کی بھی بہت تکریم کرتے تھے۔

*دہریت:* 

ان تمام مذاہب کے ساتھ ساتھ عرب میں ایسے لوگ بھی پاۓ جاتے تھے جو سرے سے مذہب اور خدا پر یقین ہی نہ رکھتے تھے، یہ نہ بت پرست تھے اور نہ کسی الہامی مذہب کے قائل تھے، ان کے نزدیک خدا، حشر و نشر، جنت دوزخ اور جزا وسزا کا کوئی وجود نہ تھا، یہ دنیا کو ازلی و ابدی قرار دیتے تھے۔

*مسلک توحید کے علم بردار:* 

عرب معاشرہ میں کچھ ایسے لوگ بھی موجود تھے جو اپنی فطرت سلیم اور قلبی بصیرت کی بدولت توحید خالص تک پہنچنے میں کامیاب ہوگئے تھے، یہ لوگ ایک خدا کے قائل تھے اور شرک و بت پرستی سے نفرت کرتے تھے، ان میں حضرت خدیجہ رضی اللہ عنہا کے چچازاد بھائی ورقہ بن نوفل،  حضرت عمر فاروق رضی اللہ عنہ کے سگے چچا زید بن عمر بن نفیل اور عبیداللہ بن جحش مشہور ہیں، دین حق کی تلاش میں سرگرداں ان لوگوں میں سے ورقہ بن نوفل بلآخر عیسائی ہوگئے، یہ وہی ورقہ بن نوفل ہیں، جنہوں نے آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم پر پہلی وحی نازل ہونے پر آپ کی نبوت کی تصدیق کی تھی۔

عبیداللہ بن جحش اسلام کے بعد مسلمان ہوگئے، لیکن حبشہ ہجرت کی تو وہاں بدقسمتی سے مرتد ہوکر عیسائی ہوگئے، جبکہ ان میں زید بن عمر بن نفیل کو بہت اونچا مقام حاصل ہے، حالاں کہ ان کو اسلام نصیب نہیں ہوا، کیونکہ وہ پہلے ہی وفات پاگئے تھے، لیکن ان کی فضیلت کا اندازہ اس حدیث مبارکہ کے مفہوم سے لگایا جاسکتا ہے کہ جب قیامت کے دن ہر امت اپنے نبی کی قیادت میں اٹھاۓ جائی گی تو زید بن عمر بن نفیل اکیلے ایک امت کے طور پر اٹھاۓ جائیں گے۔

زید بن عمر بن نفیل نے بت پرستی، مردار خوری، خون ریزی اور دیگر تمام معاشرتی خباثتوں کو اپنے اوپر حرام کرلیا تھا اور جب ان سے ان کے مذہب کے متعلق پوچھا جاتا تو آپ جواب دیتے کہ: 
" اعبد رب ابراھیم " میں ابراھیم کے رب کی پرستش کرتا ہوں۔

آپ بت پرستی سے سخت بیزار تھے اور خانہ کعبہ میں بیٹھ کر قریش کو کہتے کہ میرے سوا تم میں ایک بھی شخص دین ابراہیمی پر نہیں ہے، آپ قوم کو بت پرستی سے منع کرتے رہتے تھے، گو عرب میں ہر قسم کے دین موجود تھے، مگر ان کی اصلی صورت اتنی مسخ ہوچکی تھی کہ کفر و شرک اور دین میں امتیاز کرنا مشکل ہوچکا تھا، توحید جو ہر الہامی مذہب کا خاصہ تھا، اس کا کسی مذہب میں کہیں نام و نشان تک نہ تھا اور کفر و شرک و توہم پرستی کا اندھیرا صرف عرب ہی نہیں، تمام معلوم دنیا پر چھایا ہوا تھا، غرض تمام ہی دنیا ضلالت و گمراہی کی دلدل میں غرق ہوچکی تھی۔ تب خداۓ بزرگ و برتر کو اہل زمیں کی اس پستی وزبوں حالی پر رحم آیا اور اس نے ان میں اپنا عظیم تر پیغمبر مبعوث فرمایا۔

===========>جاری ھے..

سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط۔13


*سیرت النبیﷺ ۔۔۔ قسط:13*

*جاہلی معاشرے کی چند جھلکیاں (حصہ اول)* 

پچھلی دو اقساط میں عربوں میں بت پرستی کی تاریخ اور ولادت نبی پاک صلی اللہ علیہ وآلہ واصحابہ وسلم کے وقت سرزمین عرب اور خصوصا" مکہ و مدینہ میں رائج مختلف ادیان اور عقائد کا جائزہ لیا گیا، اس قسط میں ظہور اسلام کے وقت عربوں اور خصوصا" قریش مکہ کے معاشی اور معاشرتی حالات بیان کیے جائیں گے۔

ظہور اسلام کے وقت اگر عرب معاشرے کا ایک سرسری سا جائزہ بھی لیا جاۓ تو ایک بات شدت سے محسوس ہوتی ہے کہ تب کا عرب معاشرہ ایک ہی وقت میں اچھی بری متضاد خصلتوں کا شکار تھا،  اور اس سے بھی اہم بات یہ کہ اچھی بری یہ متضاد خصلتیں اپنی پوری شدت سے ان میں سرائیت پزیر تھیں، ایسے میں اگر ہم ان میں رائج بد عادات و رسوم و رواج کو مدنظر رکھیں تو عرب معاشرہ ایک بدترین معاشرے کی تصویر پیش کرتا ہے اور اگر ہم عربوں کے اوصاف حمیدہ کو سامنے رکھیں تو درحقیقت ان سے بہتر انسانی معاشرہ اور معاشرتی اقدار کی نظیر ملنا مشکل ہے۔

بنیادی طور پر عرب معاشرہ تین طبقات پر مشتمل تھا۔

*1 : حضری:* 

وہ لوگ جو شھروں میں آباد تھے اور مستقل طور پر شھروں میں ہی سکونت پذیر تھے، ان کی تعداد بہت تھوڑی تھی، حضری عربوں کا ذریعہ آمدنی نخلستانوں کی آمدن اور تجارت تھا، درحقیقت یہ آپ صلی اللہ علیہ وآلہ واصحابہ وسلم کے پردادا حضرت ہاشم تھے جنہوں نے روم و ایران اور شام و ہندستان کے حکمرانوں کے ساتھ تجارتی معاہدات کیے، اس طرح عرب لوگ بڑے بڑے قافلوں کی صورت میں ان کے ممالک جاتے اور وہاں سے قافلے عرب آتے، قریش مکہ کو کیونکہ خانہ کعبہ کی تولیت کی وجہ سے مرکزی اہمیت حاصل تھی، اس لیے قریش مکہ کے قافلوں کو عرب کے بدوی قبائل لوٹنے سے بھی گریز کرتے۔

*2 : بدوی:* 

عرب کی اکثر آبادی بدوی قبائل پر مشتمل تھی جو خانہ بدوشی کی زندگی بسر کرتی تھی، ان کا اصل ذریعہ معاش گلہ بانی یعنی جانور پالنا تھا، اس لیے جہاں کہیں چراگاہ نظر آتی وہیں ڈیرے ڈال دیئے جاتے تھے، جب اس چراگاہ میں ان کے جانوروں کی خوراک ختم ہوجاتی تو وہاں سے کسی اور جگہ کا رخ کرتے، اس کے علاوہ رہزنی بھی ان کی آمدن کا ایک بڑا ذریعہ تھا، یہ لوگ عرب کے صحراؤں میں آتے جاتے قافلوں کو لوٹ لیتے جو قبائل ڈاکہ کے ذریعے روزی کماتے تھے وہ اس پر بہت فخر کیا کرتے تھے..

*3 : لونڈی اور غلام:* 

معاشرے کا تیسرا اور سب سے نچلا طبقہ لونڈیوں اور غلاموں کا تھا جو حضری و بدوی عربوں کے ساتھ خادم کی حیثیت سے رہتے تھے، غلاموں میں عرب اور غیر عرب دونوں شامل تھے، عرب تو قبائل کی آپس کی جنگ میں مغلوب ہونے یا پھر مقروض ہونے کی وجہ سے لونڈی اور غلام بنا لیے جاتے، جبکہ غیر عرب بکتے بکاتے سرزمین عرب پہنچتے جہاں باقاعدہ منڈیوں اور بازاروں میں ان کی خرید و فروخت ہوتی تھی، مالک کو یہ حق حاصل تھا کہ وہ اپنے غلام پر جس طرح چاہے ظلم ڈھاۓ اور چاہے تو اسے جان سے ہی مار ڈالے، معمولی معمولی باتوں پر غلاموں کو اتنی سخت سزائیں دی جاتیں کہ انسانیت کی روح بھی کانپ اٹھتی، غلام کا بیٹا بھی پیدائشی غلام ہوتا تھا،  اسی طرح لونڈیاں بھی ظلم و ستم کا نشانہ بنتی تھیں اور ان سے بدکاری کا پیشہ بھی کرایا جاتا تھا، ناچ گانے جاننے والی لونڈیوں کی قیمتیں نسبتا" زیادہ ہوتی تھیں،  غرضیکہ غلاموں اور لونڈیوں کی جان و مال، عزت و آبرو اور اولاد سب کی سب ان کے آقا کی ہی ملکیت ہوتی تھی۔

عرب معاشرے میں جنگ و جدل کا سلسلہ مسلسل جاری رہتا، مگر اس جنگ و جدل، مسلسل خانہ جنگی اور صدیوں تک جاری رہنے والے باہمی بغض و عناد اور تعصب و عداوت کے باوجود عرب ایک مشترکہ ثقافت رکھتے تھے جس کے بنیادی عناصر میں اپنے آباء و اجداد پر فخر کرنا، ان کی روایات کو برقرار رکھنا اور مشترکہ زبان عربی کو گنوایا جاسکتا ہے۔

عرب نسلی طور پر قحطانی اور عدنانی (بنو اسماعیل) دو گروہوں میں بٹے ہوتے تھے، لیکن دونوں کو عربی زبان پر فخر تھا، شعرو شاعری بچے بچے کی زبان پر تھی اور شعری ذوق اور عرب ثقافت کا بھرپور اظہار طائف کے قریب "عکاظ" کے مقام پر ہر سال لگنے والے میلہ میں کیا جاتا، عام حالات میں ایک عرب جنگجو سپاہی تھا، مگر اس میلے میں وہ بھی ایک شاعر کا روپ دھار لیتا، شراب خوری کی مجلسیں سجائی جاتیں اور گردش جام کے ساتھ ایسی بلند پایہ غزلیں کہی جاتیں کہ آج تک اس دور کے ادب کو کلاسیکی مانا جاتا ہے، فاحشہ عورتوں کی موجودگی نے ان مجالس کو  بیہودگی کی انتہائی پستیوں تک پہنچا دیا تھا۔

===========> جاری ھے..